एक फ़क़ीर बादशाह औरंगज़ेब का वसीयतनामा और आखिरी ख़त
सम्राट औरंगज़ेब भारत के कठोर सम्राटों में गिना जाता है। लेकिन जहाँ एक ओर उसने अपने पिता शाहजहाँ को क़ैद में रखा और भाइयों का क़त्ल करवाया, वहाँ दूसरी ओर वह त्याग, सदाचार और कठोर जीवन की प्रतिमूर्ति समझा जाता है। यदि एक ओर वह स्वेच्छाचारी था तो दूसरी ओर ग़रीबी और नम्रता से भरा हुआ। प्रजा की गाढ़ी कमाई का एक पैसा भी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए ख़र्च करने को वह पाप समझता था। दुनिया के बड़े से बड़े सम्राटों में उसकी गिनती थी। उसका ख़जाना हीरे जवाहरात से लबालब था किन्तु अधिकतर नमक और बाज़रे की रोटी पर वह अपना जीवन काटता था। विलानागा उसने जीवनभर गंगाजल का ही व्यवहार किया। वह अपनी सल्तनत को ‘ईश्वरीय मार्ग पर अर्पण’ मानता था। मरने से पहले सम्राट औरंगज़ेब आलमगीर ने जो वसीयत की है, उसे देखकर हम इस महान सम्राट के अंतिम दिनों की मानसिक स्तिथि को भली भाँति समझ सकते हैं।वसीयत की धाराएँ ये हैं –
(1) बुराइयों में डूबा हुआ मैं गुनहगार, वली हज़रत हसन की दरगाह पर एक चादर चढ़ाना चाहता हूँ, क्यूंकि जो व्यक्ति पाप की नदी में डूब गया है, उसे रहम और क्षमा के भंडार के पास जाकर भीख माँगने के सिवाय और क्या सहारा है। इस पाक काम के लिए मैंने अपनी कमाई का रुपया अपने बेटे मुहम्मद आज़म के पास रख दिया है। उससे लेकर ये चादर चढ़ा दी जाय।
(2) टोपियों की सिलाई करके मैंने चार रूपये दो आने जमा किये हैं। यह रक़म महालदार लाइलाही बेग के पास जमा है। इस रक़म से मुझ गुनहगार पापी का कफ़न ख़रीदा जाय।
(3) कुरान शरीफ़ की नकल करके मैंने तीन सौ पाँच रूपये इकट्ठा किये हैं। मेरे मरने के बाद यह रक़म फ़क़ीरों में बाँट दी जाय। यह पवित्र पैसा है इसलिये इसे मेरे कफ़न या किसी भी दूसरी चीज़ पर न ख़र्च किया जाय।
(4) नेक राह को छोड़कर गुमराह हो जाने वाले लोगों को आगाह करने के लिये मुझे खुली जगह पर दफ़नाना और मेरा सर खुला रहने देना, क्यूंकि उस महान शहन्शाह परवरदिगार परमात्मा के दरबार में जब कोई पापी नंगे सिर जाता है, तो उसे ज़रूर दया आ जाती होगी।
(5) मेरी लाश को ऊपर से सफ़ेद खददर के कपड़े से ढक देना। चददर या छतरी नहीं लगाना, न गाजे बाजे के साथ जुलुस निकालना और न मौलूद करना।
(6) अपने कुटुम्बियों की मदद करना और उनकी इज्ज़त करना। कुरान शरीफ़ की आयत है – प्राणिमात्र से प्रेम करो। मेरे बेटे! यह तुम्हें मेरी हिदायत है। यही पैग़म्बर का हुक्म है। इसका इनाम अगर तुम्हें इस ज़िन्दगी में नहीं तो अगली ज़िन्दगी में ज़रूर मिलेगा।
(7) अपने कुटुम्बियों के साथ मुहब्बत का बर्ताव करने के साथ-साथ तुम्हें यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि उनकी ताक़त इतनी ज़्यादा न बढ़ जाय कि उससे हुकूमत को ख़तरा हो जाय।
(8) मेरे बेटे! हुकूमत की बाग़डोर मज़बूती से अगर पकड़े रहोगे तो तमाम बदनामियों से बच जाओगे।
(9) बादशाह की हुकूमत में चारों ओर दौरा करते रहना चाहिये। बादशाहों को कभी एक मुक़ाम पर नहीं रहना चाहिये। एक जगह में आराम तो ज़रूर मिलता है, लेकिन कई तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।
(10) अपने बेटों पर कभी भूल कर भी एतबार न करना, न उनके साथ कभी नज़दीकी ताल्लुक रखना।
(11) हुकूमत के होने वाली तमाम बातों की तुम्हें इत्तला रखनी चाहिये – यही हुकूमत की कुँजी है।
(12) बादशाह को हुकूमत के काम में ज़रा भी सुस्ती नहीं करनी चाहिये। एक लम्हे की सुस्ती सारी ज़िन्दगी की मुसीबत की बाइस बन जाती है।
यह है संक्षेप में सम्राट औरंगज़ेब आलमगीर का वसीयतनामा। इस वसीयत की धाराओं को देखकर यह पता चलता है कि सम्राट को अपने अंतिम दिनों में अपने पिता को क़ैद करने, अपने भाइयों को क़त्ल करने पर मानसिक खेद और पश्चाताप था।
इसी वसीयतनामें के मुताबिक औरंगाबाद के निकट खुल्दाबाद नामक छोटे से गाँव में जो औरंगज़ेब आलमगीर का मक़बरा बनाया गया, उसमें उसे सीधे सादे तरीक़े से दफ़न किया गया। उसकी क़ब्र कच्ची मिटटी की बनाई गई। जिस पर आसमान के सिवाय कोई दूसरी छत नहीं रखी गई। क़ब्र के मुजाविर उसकी क़ब्र पर जब तब हरी दूब लगा देते हैं। इसी कच्चे मज़ार में पड़ा हुआ भारत का यह महान सम्राट रोज़े महशर के दिन तक अपने परमात्मा से रूबरू होने की प्रतीक्षा में है।
अपने बेटे मुअज्ज़म शाह को उसने मरने से पहले जो ख़त लिखा, उसमें लिखा –
“बादशाहों को कभी आराम या ऐशोइशरत की ज़िन्दगी नहीं बरतनी चाहिये। यह ग़ैर मर्दानगी की आदत ही मुल्कों और बादशाहों के नाश की वजह साबित हुई है। बादशाहों की अपनी हुकूमत में नशीली चीज़ों और शराब बेचने या पीने की कभी इज़ाज़त न देनी चाहिये। इससे रिआया का चरित्र नाश होता है। इस मद की आमदनी को उन्हें हराम समझना चाहिये।”
अपने बनारस के सूबेदार के नाम एक ख़त में औरंगज़ेब आलमगीर लिखता है –
“अपनी हिन्दू रिआया के साथ ज़ुल्म न करना। उनके साथ धार्मिक उदारता बरतना और उनकी धार्मिक भावनाओं का लिहाज़ करना।”
औरंगज़ेब आलमगीर मनुष्य मनुष्य के बीच फ़र्क को अल्लाह की नज़रों में गुनाह समझता था। उसका पिता शाहजहाँ जब तख़्त पर था तो एक बार उसने औरंगज़ेब आलमगीर से शिकायत की कि उसे शहज़ादे की हैसियत से छोटे बड़े सब से एक तरह नहीं मिलना चाहिये। इस पर औरंगज़ेब आलमगीर ने अपने बाप की हर तरह इज्ज़त करते हुये जवाब दिया –
“लोगों के साथ मेरा बराबरी का बर्ताव इस्लाम के सिद्धांतों के बिलकुल अनुरूप है। इस्लाम के पैग़म्बर ने कभी अपनी ज़िन्दगी में छोटे बड़े की तमीज़ नहीं की। ख़ुदा की नज़रों में सब इंसान बराबर हैं। इसलिये मैं आपकी आज्ञा मानने में अपने को असमर्थ पाता हूँ।”
ऐसा था वह महान सम्राट, जिस पर इतिहास ने एक काली चादर डाल रखी है और जिसके सम्बन्ध में आम पढ़े लिखे आदमी के दिल में क्रूरता की एक भयंकर तस्वीर खिंची हुई है। जैसे जैसे जाँच पड़ताल की तेज आँखें विगत के परदे हटाती जाती है, वैसे वैसे हमें सम्राट औरंगज़ेब आलमगीर के जीवन के मानवीय पहलू भी दिखाई दे रहे हैं।